Monday 21 November 2011

माँ




रमेश आज फिर ऑफिस के लिए देर हो रहा था
रात देर तक ऑफिस के काम ही निपटाता रहा और इस समय उसे सिर्फ ऑफिस जल्स से जल्द पहुँचने की देरी थी
तभी माँ ने कहा- बेटा !
रमेश - माँ ! कल गाडी बनवाने लगा था आज दवाई ले आऊंगा
माँ- अच्छा बेटा
तभी उसकी पत्नी सविता ने आकर उसे एक बड़ा थैला पकडाया
सुनो जी सर्दी आ गयी है इसे लानडरी में देते आना और हाँ  आज राहुल के स्कूल में पेरेंट्स मीटिंग है तो मैं चली जाउंगी आप ऐसा करना की जेवेलर के यहाँ से जो हार पड़ा है लेते आइयेगा
सविता को शायद इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता था की वो रमेश को माँ की दवाई के बारें में भी कह दे या कदाचित सविता अधिकतर रमेश को उसकी माँ के सामने ऐसे ही अपने काम बताती थी
उसका अहम् पुष्ट होता था और वो अपनी सास को ये दिखा देती थी की रमेश पहले उसका काम करेगा और घर की मालकिन सास नहीं बहू है इसलिए घर भी सविता के अनुसार ही चलेगा । रमेश की माँ तो इसे भी बहू की नादानी समझती थी
शाम होते होते रमेश के पास सविता के तीन फ़ोन आ चुके थे और तीनो अलग अलग कामों के
रमेश घर पहुँचने वाला था लेकिन उसे लग रहा था की वो कुछ भूल रहा है
जैसे ही घर के आँगन में कदम रखा की माँ को देखा और उसे याद आ गया की वो दवाई फिर से भूल चूका था
रमेश सीधे माँ के कमरे में गया और दवाई की पोटली देखने लगा
माँ - बेटा क्या हुआ
रमेश -माँ इसमें देखो वो दवाई थोड़ी बची हो तो काम चला लो ,कल ले आऊंगा
माँ - कोई बात नहीं बेटा,कल ले आना
रमेश की पिता को गुज़रे कुछ ही महीने हुए थे उनके रहते हुए रमेश को कभी माँ की इस तरह सुध नहीं लेनी पड़ी पिता स्वयं ही अपना व माँ का ख्याल रखते थे
उनके बाद रमेश पर ही ये ज़िम्मेदारी आ गयी थे जिससे अभ्यस्त होने में शायद उसे कुछ वक़्त की दरकार थी
बहरहाल रमेश ने बड़े ही आत्मविश्वासी ढंग से माँ को आश्वस्त किया की कल वो दवाई ज़रूर ले आएगा
रमेश को भी इस बात का भान था की माँ की दमा की दवाई घर में ना होने पर रात बिरात तबियत खराब होने पर बहुत मुश्किल सामने आ सकती है
अगले दिन रमेश का ऑफिस बहुत सजा हुआ था उसके यहाँ कंपनी के सबसे बड़े अधिकारी आये थे
शाम देर तक मीटिंग्स चलती रहीं लेकिन उस बीच भी बीवी के कामों की फेहरिस्त  एस मेस द्वारा फ़ोन पर पहुँच रही  थे जिनमे से सन्डे को अभी से सिनेमा की टिकटें खरीदना भी था
खैर शाम को घर पहुंचा तो बीवी गेट पर ही प्रतीक्षारत थी आते ही रमेश का हाथ पकड़कर बड़े ही मनोहारी ढंग से कमरे की तरफ ले जाने लगी और उससे पूछने भी लगी -
क्यूँ जी टिकटें ले आये हो न
रमेश - हाँ, लेकिन आज बड़ा स्पेशल ट्रीटमेंट दे रही हो
बीवी - हां,अभी बताती हूँ चलिए चाय पानी कर लीजिये आज आपके पसंद का खाना बना है
तभी रमेश ने माँ के कमरे की तरफ देखा तो बीवी का हाथ छुड़ाके समझा के की अभी आता हूँ माँ के पास जाने लगा
रमेश अपने रुमाल से अपने चेहरे के पसीने को पोछते हुए पहुंचा
माँ अभी सात बजे हैं मैं नौ बजे तक तुम्हारी दवाई ले आऊंगा
माँ- कोई बात नहीं बेटा कल ला देना
रमेश जाने लगा तो माँ बोली - बेटा,कुछ देर रुक जा फिर चले जाना  
माँ उठी और एक कटोरी में कुछ निकाल के ले आई
रमेश- अरे वाह गाज़र का  हलुवा वो भी तेरे हाथ का माँ, क्या बात है
तभी रमेश ने माँ की आखों में देखा और उसे कुछ याद आया
माँ ये तो तुम ख़ास मेरे जन्मदिन पर ही बनाती हो
माँ- हाँ बेटा वोही दिन तो है आज
रमेश की आखें भीग चुकी थी
तभी पत्नी सविता की आवाज़ आई- ऐजी,चाय ठंडी हो रही है
रमेश बड़े आत्मविश्वास से बोला- सविता,खाना भी यहीं ले आना

Saturday 12 November 2011

अच्छा ठीक है - 2


सुमित अपने मजदूरी के काम से संतुष्ट था उसे इस बात की ख़ुशी थी की वो चोरी या किसी अपराध द्वारा पैसा नहीं कमा रहा और ना ही किसी का अहित करके
शाम को मजदूरी से लौटने के बाद वो अपने बच्चों के साथ दिन बिताता और उनमे भी वो अच्छे संस्कार डालता
वो हमेशा अपने बच्चों को बताता की शान्ति,दया,प्रसन्नता,मानवता,अहिंसा,सहिष्णुता बहादुर व्यक्ति ही धारण करता है
वो उनमे परोपकार,जिजीविषा और कभी भी किसी का अहित न करने की प्रेरणा भरता था ।

उधर भानु को अपने व्यवसाय को अधिक से अधिक बढाने की जल्दी थी उसे याद नहीं रहता था की उसने आखिरी बार अपने बच्चों से कब बात की ।

पत्नी से भी वो येही कहता था की देखो तुम लोगों के लिए ही जोड़ रहा हूँ ।  भानु की शामें अधिकतर बड़े अफसरों के साथ किसी बार में या अपने ही घर पर  जहाँ वो उनसे पैसे  के लेनदेन की बात करता या फिर क्लब में बीतती थी । भानु ने अपने व्यवसाय को बहुत बढाया व उसके मुताबिक उसने सात पुश्तों के बराबर पैसा जोड़ लिया ।  लेकिन भानु ये कभी न सोच पाया की अपने बच्चों के सामने ही दूसरों को रिश्वत देना,घर में शराब पीना ये कहके की ये तो रईसों के ठाठ हैं,बच्चों की पढ़ाई का मतलब सिर्फ बड़े स्कूल को समझना जाने अनजाने कैसा संस्कार वो अपने बच्चों को दे रहा है ।

बहरहाल वक़्त ने पंख लगाये और फिर से घडी २५ साल आगे घूम गयी ।


इधर भानु ने पढ़ाई में कमज़ोर अपने बेटे अंकित को खूब पैसे लगा के बहार विदेश से पढाई कराई थी और इधर सुमित के लड़के महेंद्र ने प्रतिस्पर्द्धी परीक्षा में प्रदेश में बाज़ी मारी थी ।


भानु के लाख कहने पर की अपने ही व्यवसाय को बढाओ अंकित नहीं माना व नौकरी करने पर ही जोर दिया
एक तो पिता से उसकी बनती नहीं थी दूसरा वो अपने पिता को नौकरी द्वारा ही अधिक से अधिक पैसे कमा के दिखाना चाहता था । उधर महेंद्र को अपनी पढ़ाई के आखिरी सत्र से ही बड़ी बड़ी कंपनियों के प्रस्ताव आने लगे ।

संयोगवश दोनों एक ही कंपनी में एक ही पद पर अलग अलग विभाग में नियुक्त हुए । बहुत बड़ा पद था व उसी तरह से उनकी आय ।

कंपनी ने बहुत ख्याल रखा था अपने उच्च अधिकारियों का दोनों को ही मकान व गाडी आदि सब मिले थे । एक तरफ अंकित को इन सबसे कुछ फर्क न पड़ा वहीँ महेंद्र अपने माता पिता को मिले नए घर में लाके,उन्हें हर तरह की ख़ुशी देके बहुत खुश था । अंकित के लिए कंपनी सिर्फ एक पैसे कमाने का माध्यम थी परन्तु महेंद्र के लिए कंपनी की बढोत्तरी प्राथमिकता थी ।

महेंद्र जहाँ नियत समय से १५ मिनट पहले ऑफिस पहुँचता वहीँ अंकित १५ मिनट बाद ।  महेंद्र जहाँ ऑफिस के काम के बाद भी काफी देर तक रहता व अपने अधिकारियों को कंपनी के लाभ के अधिक से अधिक

उपाय सुझाता रहता वहीँ अंकित ऑफिस से १५ मिनट पहले ही निकल पड़ता ।
अंकित और महेंद्र में बातचीत होना लाजिमी थी दोनों ही कंपनी के वरिष्ठ अधिकारियों में से थे । दोनों में ही परस्पर विरोधी स्वभाव होने पर भी ठीक दोस्ती थी क्यूंकि अपने सीधे सौम्य स्वभाव के कारण महेंद्र
शांत व धैर्य से बात सुनता वहीँ पैसे को ही प्राथमिकता पर रखे अंकित अधिकतर आवेश में ही रहता वह महेंद्र के ऐसे स्वभाव पर मन ही मन हँसता और उसे निरा मूर्ख ही समझता था,वह अधिकतर बातों ही बातों में
महेंद्र को कंपनी को चूना लगा के पैसा बनाने की तरफ इशारा करता लेकिन महेंद्र कुछ तो समझ न पाता और कुछ खुद भी हंसके टाल देता ।

सबकुछ ठीक चल रहा था महेंद्र जहाँ अपनी तनख्वाह को बहुत पर्याप्त मानता था वहीँ उससे कहीं ज्यादा पैसा अंकित रिश्वत लेके रोज़ बनाता था फिर भी असंतुष्ट रहता था ।

लेकिन दिक्कत तब आई जब महेंद्र का भी अंकित के विभाग में स्थानान्तरण हो गया ।
एक बहुत बड़े व्यवसायी से बड़ी रकम ले चुके अंकित को मालूम न था की उस व्यवसायी का माल महेंद्र द्वारा गुणवत्ता में ठीक न होने की वजह से रोक दिया जायेगा ।
अंकित ने अनुनय विनय से महेंद्र को मनाना चाहा लेकिन महेंद्र अपने फैसले पर अडिग था, वो इतना बड़ा धोखा अपनी कंपनी के साथ नहीं कर सकता था ।

उस व्यवसायी ने भी महेंद्र को रिश्वत देने का प्रयत्न किया लेकिन महेंद्र न माना ।

उस व्यवसायी का आर्डर रद्द कर दिया गया आखिर अंकित को लिए गए पैसे वापस देने पड़े और उसने उसी वक़्त से महेंद्र को दुश्मन मान लिया ।

अब अंकित के निशाने पर महेंद्र रहने लगा उसने उच्च अधिकारियों के साथ मिलके सबसे पहले तो उसका ऐसे विभाग में स्थानान्तरण कराया जहाँ से उनकी काली कमाई को ग्रहण न लगे ।

इसके बाद महेंद्र पर झूठे आरोप लगवाए व अधीनस्थ  लोगों को भी मिलाके आरोप साबित भी कर दिए ।

महेंद्र नौकरी से निकाल दिया गया ।


उसकी हिम्मत नहीं पड़ रही थी की कैसे अपने सत्यप्रिय पिता से झूठ बोले,वो ये नहीं सोच पाता की कैसे अपने पिता को बताये की उनकी सिखाई इमानदारी के बदले में उसे ये मिला है ।

इतना ही नहीं अंकित ने महेंद्र दूसरी जगह भी आसानी से नौकरी न कर पाए इसलिए सभी समान बड़ी कंपनी में सर्कुलर भिजवाया था जिसमे महेंद्र की बेईमानी का बखान था ।

परन्तु सत्य परेशान हो सकता है कभी भी हार नहीं सकता ।  आखिर महेंद्र को फिर से अपने पदानुरूप नौकरी मिली और वो फिर से प्रगति करने लगा ।

लेकिन विधि ने जैसे कुछ और ही लिखा था ।


इधर बेतहाशा पैसे कमाने के बाद बड़ा घोटाला करके अंकित ने नौकरी छोड़ दी व अपने व्यवसाय पर ध्यान देने लगा ।  उसने  जिस प्रमुख अधिकारी के साथ मिलके काली कामायी करी थी उसे भी अपने व्यवसाय में साझेदार बनाया। शुरू में तो सब ठीक थे लेकिन कुछ ही साल में उसे लगने लगा की उसकी कंपनी घाटे में चल रही है लेकिन जब तक वो समझ पाता कंपनी के अधिकतर शेयर का मालिक उसका साझेदार हो चुका था और उसने अंकित को
जालसाजी करके कंपनी से बाहर कर दिया ।

अंकित की पूरी कमाई उसके इसी व्यवसाय में लगी थी और अब वो सड़क पर आ चुका था ।  पिता से अपना व्यवसाय खोलते ही वो अलग हो चुका था इसलिए उनके पास किस मुंह से जाता

उसके अन्दर ये भाव आ गया था की उसने जिस तरह से धोखे से पैसे बनाये थे वे वैसे ही चले गए । उसे ये लगने लगा था की उसके पिता ने भी अगर उसे अच्छे संस्कार दी होते तो वो कम से कम ऐसे हाल पर न होता

कुछ महीने गुज़र गए और अंकित फिर से किसी नौकरी करने की सोच के निकला लेकिन उसके किए हुए घोटालों का सच सामने आ चुका था अतः कहीं  भी उसे काम न मिलता ।
इसी तरह कई जगह से नाउम्मीद होके वो एक और कंपनी में साक्षातकार हेतु गया ।
वहां अपनी बारी आने पर जिस शख्स को उसने सामने देखा वो महेंद्र था । महेंद्र अब तक अच्छा काम करते हुए उस कंपनी के निदेशक पद पर पहुँच चुका था ।
महेंद्र को देखके वो बिना कुछ बोले शर्मिंदगी से वापस लौटने लगा की तभी महेंद्र ने उसे रोका ।

महेंद्र सब समझ चुका था और उसने कुछ भी देर में उसे उसी कंपनी में उसके पदानुरूप पद देकर नौकरी पर रख लिया ।


कहानी कुछ प्रश्न सामने रखती है :


१. क्या बच्चों के संस्कार का उन पर पूरी उम्र असर रहता है ?


२. क्या महेंद्र के खिलाफ अंकित का प्रतिशोध की भावना रखना ठीक था ?


३. क्या अंकित अब दुबारा धोखा नहीं करेगा ?


४. क्या अंकित के ह्रदय में प्रयाश्चित की भावना उपजेगी ?


५. क्या महेंद्र ने अंकित को दुबारा मौका देके ग़लत किया ?


६. क्या अंकित ने जो ग़लत किया वो भानु द्वारा दी गए संस्कार थे ?


७. क्या ये सत्य  है की सत्य परेशान हो सकता है हार नहीं सकता ?


८. क्या हम सबके अन्दर ये दो चरित्र अंकित और महेंद्र या सुमित और भानु हमेशा रहते हैं ?


९.क्या बुराई को अच्छाई से ही दूर किया जा सकता है ?

Saturday 5 November 2011

अच्छा ठीक है


'अच्छा ठीक है" ये शब्द शायद सुमित के तकियाकलाम से थे
विद्यालय में भी जब उसके कक्षा के बच्चों को कोई विषय न मिलता तो वो आपस में इन्ही शब्दों को बोलके हंसी ठिठोली करते
कई बार तो उसका कालर खींचते,कई बार उसे धक्का दे देते और कई बार मास्टरजी से झूठी शिकायत  करके  मार खिलाते
सांतवी  कक्षा का सुमित हंस के सुन लेता था, सह लेता था बल्कि उसे अपने साथियों को आनंदित देख अच्छा लगता था
लेकिन बात सिर्फ इतनी नहीं थी सुमित एक बहुत गरीब घर से आता था और उनके कसबे में सिर्फ येही एक प्राथमिक विद्यालय था अतः
सभी  बच्चे आते थे और धनाड्य  परिवार के ज्यादा थे
सुमित के मनमे पढने की रूचि बहुत थी और उस रास्ते में ये हंसी ठिठोली उसे बुरी  नहीं लगती थी भले वो हमेशा उस ही लेके कर ही हो
और अब तो सुमित को अपने स्कूल में तीन साल हो रहे थे

स्वभाव से ही शांत व प्रसन्नचित सुमित न विद्यालय में और न ही घर में विद्यालय के काम से निजात पा  पाता  कारण की उसके सहपाठियों के
गृहकार्य का भी ज़िम्मा उसी का होता था ऐसा शिक्षक ने नहीं उसके सहपाठियों ने ही अपने रौबवश किया था

ये शायद उसके शांत रहने का जुरमाना था या एक गरीब होके भी अमीरों के साथ एक स्कूल में पढने का दंड

बहरहाल सुमित इन सब बातों से अनभिज्ञ था या शायद रहना ही चाहता था उसे अपने पिता की मार व ज़बरदस्ती मजदूरी करने जाने
से स्कूल में सबसे दबकर रहना उचित प्रतीत होता था

सुमित पढ़ाई में तेज़ था  जब उसके कक्षा अध्यापक कहते की तू 
बड़ा  आदमी बनेगा  तो ये शब्द उसे ऐसे लगते जैसे  उसे हर ख़ुशी मिल गयी


लेकिन ये ख़ुशी चंद दिनों की थी और सुमित का अंदेशा की कहीं उसकी पढ़ाई छूट न जाए सही निकला
बात वार्षिक परीक्षा के दिन की है सभी विद्यार्थी अपना परीक्षापत्र  हल  कर रहे थे लेकिन जिन्होंने साल भर मस्ती की उन्हें तो बस नक़ल का सहारा था
सबको मालूम था एक अन्य सहपाठी भानू नक़ल ले के आया है और सब मास्टरजी से नज़र बचा बचा कर

किताब ले रहे थे और मेज़ में छुपा कर लिख रहे थे । सुमित चूँकि बीच की पंक्ति में बैठा था या सहपाठियों द्वारा  बैठाया गया था तो उसे न चाह कर भी नक़ल की किताब एक ओर से दूसरी ओर देनी पड़ रही थी। लेकिन ऐसा कब तक चलता आखिर कक्ष-निरीक्षक की नज़र किताब पर पड़ गयी और भानू का नाम सामने आने लगा 
लेकिन भानू ने बड़े आत्मविश्वास से दोष सुमित पर मढ़ दिया सारी कक्षा अवाक थी,सबकी निगाहें सुमित की तरफ थीं और सुमित ने अपना सर झुकाकर इस कुकृत्य की स्वीकृति दे दी
उसकी परीक्षा रद्द कर दी गयी और कुछ दिनों के बाद सड़क हादसे में पिता की मृत्यु हो गयी
सुमित की प्राथमिकताएं बदल चुकी थी अब उसे पढना नहीं अपनी माँ और छोटे भाई और बहन का भरण पोषण करना था
। उसे जो भी काम मिलता कर देता,उसकी आखों से पढ़ाई बहुत दूर हो चुकी थी,ना ही उसमे पढने की इच्छा थी क्यूंकि उसे लगता था पढ़ाई लिखी तो सभ्रांत होने के लिए की जाती और इसके लिए पढने से ज्यादा सीखने और मनन की आवशयकता होती,वैसे सुमित के दिल में अपने सहपाठियों द्वारा किया हुआ कुकृत्य याद आता रहता था,उसका दिल फिर भी उन्हें दोषी नहीं ठहरता उसे दुःख इस बात का था की उसी साल से छात्रवृत्ति की शुरुआत होनी थी और इसके लिए उसने जी-तोड़ मेहनत की थी
बहरहाल वक़्त रुकता नहीं और पंद्रह साल बीत गए



भानू अमेरिका से  ऊँची पढाई कर लौटा था और अपने पिता के भूमि-गृह निर्माण व्यवसाय में हाथ बटाने लगा । वो खुद भी एक बहुत बड़ा मल्टी- काम्प्लेक्स बनवा रहा था 
एक दिन वो अपनी वर्क-साईट पर आया जहाँ उसने देखा की ठेकेदार सभी मजदूरों को पैसे दे रहा था
। एक आदमी को पैसे देते वक़्त वो थोडा चिल्लाने  लगा भानू पास गया तो माजरा समझा । उस आदमी को ठेकेदार ने पांच  दिन के पैसे बकाये किए थे और आज देते समय ठेकेदार चार दिन की ही दिहाड़ी बाकी है ऐसा कहके चार दिन के ही पैसे दे रहा था और वो आदमी जो अपनी बेतरतीब से उगी दाढ़ी के
कारण अपनी उम्र से अधिक लग रहा था ठेकेदार को याद दिला रहा था। भानू को अपने मलिकपने का एहसास हो आया और वो ठेकेदार का पक्ष लेते हुए बोलने लगा ''इस तरह से कोई भी ज्यादा दिन कहेगा तो क्या सच मान लिया जाएगा,देखो ये ठेकेदार ग़लत क्यूँ बोलेगा, ए तुम चार दिन का पैसा ले सकते हो तो बताओ । तुम्हारे हिसाब से सब चलने लगा तब तो ये प्रोजेक्ट बन चुका सारा पैसा तुम्ही लोगों
में खर्च हो जायेगा
। अरे ज्यादा कमाना था तो ज्यादा पढना चाहिए नहीं तो ज्यादा काम करो । हाँ  तो  बताओ तुम्हे चार दिन के पैसे चाहिए की नहीं ।"
उस मजदूर ने सिर्फ इतना कहा ''अच्छा ठीक है'' । ये कहके वो ठेकेदार से पैसे लेके अपनी झोपडी की तरफ चल पड़ा

 



कुछ प्रश्न जो बरबस ही इस कहानी से निकलते हैं :


१. क्या समाज में सामान शिक्षा मात्र शैक्षिक पाठ्य-क्रम सामान कर देने से हो जाएगी ?

२. क्या बच्चों को बचपने से ही अमीरी गरीबी का पाठ हम अनजाने में पढ़ा जाते हैं ?


३. क्या सुमित का नक़ल न करने के बावजूद नक़ल स्वीकार करना ग़लत था ?

४. क्या पढ़ाई के आधार बिंदु सभ्रान्तता,सहिष्णुता,धैर्य,संतोष हैं या मान,दंभ,चतुराई,घमंड व वस्तुवादिता ?

५. क्या कई बार अमीर अथवा विरासत से हुए अमीर भानू की तरह जीने वाले जीवन भर जीवन तत्त्व  नहीं जान पाते ? क्या वे नहीं जान पाते जीवन तत्त्व मात्र स्वार्थ,चतुराई,क्रोध,दंभ में नहीं शान्ति,निस्वार्थता,त्याग व मानवता में निहित है ?


६. क्या सत्य अथवा अच्छाई को किसी प्रमाण अथार्त डिग्री की अपेक्षा या आवश्यकता होती है ?या ये स्वयं में प्रमाण है ?

७. क्या सत्य अथवा अच्छाई किसी फल की इच्छा के लिए किए जाते हैं या ये स्वयं ही फल हैं ?