Sunday, 27 May 2012

दीदी

 रोहित ने आते ही अपने स्कूल के कपडे इधर उधर फेंके,खाना खाया और आराम करने को लेटा तो उसे बस खेल का मैदान याद आ रहा था और कैसे एक घंटा बीते सोचते सोचते एक घंटा बीत गया और वो खलेने चल पड़ा वहां बारिश में फूटबाल खेलने का उसने विशेष आनंद लिया और अँधेरा हो जाने पर भी उसका आने का मन नहीं था

घर आया तो उसे अपनी थकान की याद आई

शाम को पड़ने बैठा तो उसे समझ में आया की आज क्यूँ कुछ ज्यादा ही खेलने में मन लग रहा था

उसने हिंदी व्याकरण का काम नहीं किया था और इस तरह से पूरे तीन अध्याय हो चुके थे और कल मैम ने कॉपी चेक करने को कहा है

उसे ये सोचते ही की हिंदी वाली मैम तो बहुत कठोर सजा देती हैं सभी के सामने अपमानित करती है और कई बार तो मुर्गा भी बना देती हैं उसे  हिंदी और कठिन लगने लगी

अचानक उसका मन झूम उठा अरे दीदी  तो है लेकिन फिर वो उदास हो गया की कल झगडे में उसने दीदी को मारा था और झगडा भी उसने ही शुरू किया था दीदी ने उसे हल्का धक्का क्या दे दिया उसने उसकी पीठ पर ३-४ घूंसे बरसा दिए और मम्मी न आकर उसे रोका था अब वो गणित लगाने लगा की दीदी तो आंठवी में है मैं छठी में,मैं छोटा हूँ और मैंने इतना कसके तो नहीं मारा था दीदी मुझे माफ़ कर सकती है 

लेकिन उसकी गणित ने उसका साथ नहीं दिया

फिर भी वो दीदी के कमरे में गया साथ में सोच रहा था एक हफ्ते से लड़ाई नहीं हुई थी उसी समय याद रहता तो दीदी से होमवर्क करवा लेता

दीदी के कमरे में जाते ही उसने देखा की वो बड़ा मन लगा के पढ़ रही है

लेकिन अपनी आदत से लाचार उसे जाते ही खिलंदडपन दिखाना शुरू किया और मन में सोच रहा था मम्मी तो मेरी तरफ हैं ही दीदी से ज़बरदस्ती अपना काम करवा लुंगा और उसने उसकी कापी छीन ली और धीरे से बोला आईस-पाईस(छुपा-छुपैया) खेलोगी

रोहित जानता था की ये दीदी का पसंदीदा गेम है और इस तरह से वो उसकी नाराज़गी भी दूर कर देगा और उस पर एहसान जता के फिर अपना काम करने को भी मन लेगा

लेकिन दीदी ने मम्मी कहके जोर की आवाज़ लगाई

मम्मी तुरंत आ गयी और रोहित का कान पकड़ कर उसके रूम में ले जाने लगी की दीदी को पढने दो उसका कल यूनिट टेस्ट है

मम्मी को पकड़कर रोहित सब भूल गया तुरंत ही चिल्ला कर रोने लगा की कल पनिशमेंट मिलेगी मेरा हिंदी का काम कैसे पूरा होगा मैं कल स्कूल नहीं जाऊँगा

तभी पापा की आवाज़ सुनाई पड़ी की स्कूल तो तुम्हे जाना ही है

रोहित ने अपने आपको आनन् फानन में तैयार किया और अपना काम खुद करने का फैसला किया

वो मन ही मन दीदी पर खूब गुस्सा हो रहा था की उसने मेरी बात भी नहीं सुनी और मम्मी को बुला लिया

किताब खोल के बैठा तो उसे लगा की याद करने को होता तो वो कर भी लेता लेकिन व्याकरण उसने शुरू से नहीं पड़ी उसने कसम खायी की अब वो कभी भी अपना कोई भी पाठ कल पर नहीं छोड़ेगा कुछ पन्ने खोलते हुए उसे नींद आ गयी और कुछ थका होने के कारण भी वो सो गया

सुबह मम्मी के जगाने पर भी उसका उठने का मन नहीं हुआ

तभी मम्मी बोली -बेटा बस आने वाली है जल्दी से तैयार हो जा

रोहित बोला- नहीं मेरा आज जाने का मन नहीं है

माँ बोली - जो तेरा हिंदी का काम हो गया हो तो

ये सुनते ही रोहित उठ गया और जोर से चिल्लाया - दीदी

माँ बोली - हाँ बेटा उसने रात में तेरा होम वर्क  कर दिया है,सुबह मुझे ये बता के ही स्कूल गयी है

Monday, 21 November 2011

माँ




रमेश आज फिर ऑफिस के लिए देर हो रहा था
रात देर तक ऑफिस के काम ही निपटाता रहा और इस समय उसे सिर्फ ऑफिस जल्स से जल्द पहुँचने की देरी थी
तभी माँ ने कहा- बेटा !
रमेश - माँ ! कल गाडी बनवाने लगा था आज दवाई ले आऊंगा
माँ- अच्छा बेटा
तभी उसकी पत्नी सविता ने आकर उसे एक बड़ा थैला पकडाया
सुनो जी सर्दी आ गयी है इसे लानडरी में देते आना और हाँ  आज राहुल के स्कूल में पेरेंट्स मीटिंग है तो मैं चली जाउंगी आप ऐसा करना की जेवेलर के यहाँ से जो हार पड़ा है लेते आइयेगा
सविता को शायद इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता था की वो रमेश को माँ की दवाई के बारें में भी कह दे या कदाचित सविता अधिकतर रमेश को उसकी माँ के सामने ऐसे ही अपने काम बताती थी
उसका अहम् पुष्ट होता था और वो अपनी सास को ये दिखा देती थी की रमेश पहले उसका काम करेगा और घर की मालकिन सास नहीं बहू है इसलिए घर भी सविता के अनुसार ही चलेगा । रमेश की माँ तो इसे भी बहू की नादानी समझती थी
शाम होते होते रमेश के पास सविता के तीन फ़ोन आ चुके थे और तीनो अलग अलग कामों के
रमेश घर पहुँचने वाला था लेकिन उसे लग रहा था की वो कुछ भूल रहा है
जैसे ही घर के आँगन में कदम रखा की माँ को देखा और उसे याद आ गया की वो दवाई फिर से भूल चूका था
रमेश सीधे माँ के कमरे में गया और दवाई की पोटली देखने लगा
माँ - बेटा क्या हुआ
रमेश -माँ इसमें देखो वो दवाई थोड़ी बची हो तो काम चला लो ,कल ले आऊंगा
माँ - कोई बात नहीं बेटा,कल ले आना
रमेश की पिता को गुज़रे कुछ ही महीने हुए थे उनके रहते हुए रमेश को कभी माँ की इस तरह सुध नहीं लेनी पड़ी पिता स्वयं ही अपना व माँ का ख्याल रखते थे
उनके बाद रमेश पर ही ये ज़िम्मेदारी आ गयी थे जिससे अभ्यस्त होने में शायद उसे कुछ वक़्त की दरकार थी
बहरहाल रमेश ने बड़े ही आत्मविश्वासी ढंग से माँ को आश्वस्त किया की कल वो दवाई ज़रूर ले आएगा
रमेश को भी इस बात का भान था की माँ की दमा की दवाई घर में ना होने पर रात बिरात तबियत खराब होने पर बहुत मुश्किल सामने आ सकती है
अगले दिन रमेश का ऑफिस बहुत सजा हुआ था उसके यहाँ कंपनी के सबसे बड़े अधिकारी आये थे
शाम देर तक मीटिंग्स चलती रहीं लेकिन उस बीच भी बीवी के कामों की फेहरिस्त  एस मेस द्वारा फ़ोन पर पहुँच रही  थे जिनमे से सन्डे को अभी से सिनेमा की टिकटें खरीदना भी था
खैर शाम को घर पहुंचा तो बीवी गेट पर ही प्रतीक्षारत थी आते ही रमेश का हाथ पकड़कर बड़े ही मनोहारी ढंग से कमरे की तरफ ले जाने लगी और उससे पूछने भी लगी -
क्यूँ जी टिकटें ले आये हो न
रमेश - हाँ, लेकिन आज बड़ा स्पेशल ट्रीटमेंट दे रही हो
बीवी - हां,अभी बताती हूँ चलिए चाय पानी कर लीजिये आज आपके पसंद का खाना बना है
तभी रमेश ने माँ के कमरे की तरफ देखा तो बीवी का हाथ छुड़ाके समझा के की अभी आता हूँ माँ के पास जाने लगा
रमेश अपने रुमाल से अपने चेहरे के पसीने को पोछते हुए पहुंचा
माँ अभी सात बजे हैं मैं नौ बजे तक तुम्हारी दवाई ले आऊंगा
माँ- कोई बात नहीं बेटा कल ला देना
रमेश जाने लगा तो माँ बोली - बेटा,कुछ देर रुक जा फिर चले जाना  
माँ उठी और एक कटोरी में कुछ निकाल के ले आई
रमेश- अरे वाह गाज़र का  हलुवा वो भी तेरे हाथ का माँ, क्या बात है
तभी रमेश ने माँ की आखों में देखा और उसे कुछ याद आया
माँ ये तो तुम ख़ास मेरे जन्मदिन पर ही बनाती हो
माँ- हाँ बेटा वोही दिन तो है आज
रमेश की आखें भीग चुकी थी
तभी पत्नी सविता की आवाज़ आई- ऐजी,चाय ठंडी हो रही है
रमेश बड़े आत्मविश्वास से बोला- सविता,खाना भी यहीं ले आना

Saturday, 12 November 2011

अच्छा ठीक है - 2


सुमित अपने मजदूरी के काम से संतुष्ट था उसे इस बात की ख़ुशी थी की वो चोरी या किसी अपराध द्वारा पैसा नहीं कमा रहा और ना ही किसी का अहित करके
शाम को मजदूरी से लौटने के बाद वो अपने बच्चों के साथ दिन बिताता और उनमे भी वो अच्छे संस्कार डालता
वो हमेशा अपने बच्चों को बताता की शान्ति,दया,प्रसन्नता,मानवता,अहिंसा,सहिष्णुता बहादुर व्यक्ति ही धारण करता है
वो उनमे परोपकार,जिजीविषा और कभी भी किसी का अहित न करने की प्रेरणा भरता था ।

उधर भानु को अपने व्यवसाय को अधिक से अधिक बढाने की जल्दी थी उसे याद नहीं रहता था की उसने आखिरी बार अपने बच्चों से कब बात की ।

पत्नी से भी वो येही कहता था की देखो तुम लोगों के लिए ही जोड़ रहा हूँ ।  भानु की शामें अधिकतर बड़े अफसरों के साथ किसी बार में या अपने ही घर पर  जहाँ वो उनसे पैसे  के लेनदेन की बात करता या फिर क्लब में बीतती थी । भानु ने अपने व्यवसाय को बहुत बढाया व उसके मुताबिक उसने सात पुश्तों के बराबर पैसा जोड़ लिया ।  लेकिन भानु ये कभी न सोच पाया की अपने बच्चों के सामने ही दूसरों को रिश्वत देना,घर में शराब पीना ये कहके की ये तो रईसों के ठाठ हैं,बच्चों की पढ़ाई का मतलब सिर्फ बड़े स्कूल को समझना जाने अनजाने कैसा संस्कार वो अपने बच्चों को दे रहा है ।

बहरहाल वक़्त ने पंख लगाये और फिर से घडी २५ साल आगे घूम गयी ।


इधर भानु ने पढ़ाई में कमज़ोर अपने बेटे अंकित को खूब पैसे लगा के बहार विदेश से पढाई कराई थी और इधर सुमित के लड़के महेंद्र ने प्रतिस्पर्द्धी परीक्षा में प्रदेश में बाज़ी मारी थी ।


भानु के लाख कहने पर की अपने ही व्यवसाय को बढाओ अंकित नहीं माना व नौकरी करने पर ही जोर दिया
एक तो पिता से उसकी बनती नहीं थी दूसरा वो अपने पिता को नौकरी द्वारा ही अधिक से अधिक पैसे कमा के दिखाना चाहता था । उधर महेंद्र को अपनी पढ़ाई के आखिरी सत्र से ही बड़ी बड़ी कंपनियों के प्रस्ताव आने लगे ।

संयोगवश दोनों एक ही कंपनी में एक ही पद पर अलग अलग विभाग में नियुक्त हुए । बहुत बड़ा पद था व उसी तरह से उनकी आय ।

कंपनी ने बहुत ख्याल रखा था अपने उच्च अधिकारियों का दोनों को ही मकान व गाडी आदि सब मिले थे । एक तरफ अंकित को इन सबसे कुछ फर्क न पड़ा वहीँ महेंद्र अपने माता पिता को मिले नए घर में लाके,उन्हें हर तरह की ख़ुशी देके बहुत खुश था । अंकित के लिए कंपनी सिर्फ एक पैसे कमाने का माध्यम थी परन्तु महेंद्र के लिए कंपनी की बढोत्तरी प्राथमिकता थी ।

महेंद्र जहाँ नियत समय से १५ मिनट पहले ऑफिस पहुँचता वहीँ अंकित १५ मिनट बाद ।  महेंद्र जहाँ ऑफिस के काम के बाद भी काफी देर तक रहता व अपने अधिकारियों को कंपनी के लाभ के अधिक से अधिक

उपाय सुझाता रहता वहीँ अंकित ऑफिस से १५ मिनट पहले ही निकल पड़ता ।
अंकित और महेंद्र में बातचीत होना लाजिमी थी दोनों ही कंपनी के वरिष्ठ अधिकारियों में से थे । दोनों में ही परस्पर विरोधी स्वभाव होने पर भी ठीक दोस्ती थी क्यूंकि अपने सीधे सौम्य स्वभाव के कारण महेंद्र
शांत व धैर्य से बात सुनता वहीँ पैसे को ही प्राथमिकता पर रखे अंकित अधिकतर आवेश में ही रहता वह महेंद्र के ऐसे स्वभाव पर मन ही मन हँसता और उसे निरा मूर्ख ही समझता था,वह अधिकतर बातों ही बातों में
महेंद्र को कंपनी को चूना लगा के पैसा बनाने की तरफ इशारा करता लेकिन महेंद्र कुछ तो समझ न पाता और कुछ खुद भी हंसके टाल देता ।

सबकुछ ठीक चल रहा था महेंद्र जहाँ अपनी तनख्वाह को बहुत पर्याप्त मानता था वहीँ उससे कहीं ज्यादा पैसा अंकित रिश्वत लेके रोज़ बनाता था फिर भी असंतुष्ट रहता था ।

लेकिन दिक्कत तब आई जब महेंद्र का भी अंकित के विभाग में स्थानान्तरण हो गया ।
एक बहुत बड़े व्यवसायी से बड़ी रकम ले चुके अंकित को मालूम न था की उस व्यवसायी का माल महेंद्र द्वारा गुणवत्ता में ठीक न होने की वजह से रोक दिया जायेगा ।
अंकित ने अनुनय विनय से महेंद्र को मनाना चाहा लेकिन महेंद्र अपने फैसले पर अडिग था, वो इतना बड़ा धोखा अपनी कंपनी के साथ नहीं कर सकता था ।

उस व्यवसायी ने भी महेंद्र को रिश्वत देने का प्रयत्न किया लेकिन महेंद्र न माना ।

उस व्यवसायी का आर्डर रद्द कर दिया गया आखिर अंकित को लिए गए पैसे वापस देने पड़े और उसने उसी वक़्त से महेंद्र को दुश्मन मान लिया ।

अब अंकित के निशाने पर महेंद्र रहने लगा उसने उच्च अधिकारियों के साथ मिलके सबसे पहले तो उसका ऐसे विभाग में स्थानान्तरण कराया जहाँ से उनकी काली कमाई को ग्रहण न लगे ।

इसके बाद महेंद्र पर झूठे आरोप लगवाए व अधीनस्थ  लोगों को भी मिलाके आरोप साबित भी कर दिए ।

महेंद्र नौकरी से निकाल दिया गया ।


उसकी हिम्मत नहीं पड़ रही थी की कैसे अपने सत्यप्रिय पिता से झूठ बोले,वो ये नहीं सोच पाता की कैसे अपने पिता को बताये की उनकी सिखाई इमानदारी के बदले में उसे ये मिला है ।

इतना ही नहीं अंकित ने महेंद्र दूसरी जगह भी आसानी से नौकरी न कर पाए इसलिए सभी समान बड़ी कंपनी में सर्कुलर भिजवाया था जिसमे महेंद्र की बेईमानी का बखान था ।

परन्तु सत्य परेशान हो सकता है कभी भी हार नहीं सकता ।  आखिर महेंद्र को फिर से अपने पदानुरूप नौकरी मिली और वो फिर से प्रगति करने लगा ।

लेकिन विधि ने जैसे कुछ और ही लिखा था ।


इधर बेतहाशा पैसे कमाने के बाद बड़ा घोटाला करके अंकित ने नौकरी छोड़ दी व अपने व्यवसाय पर ध्यान देने लगा ।  उसने  जिस प्रमुख अधिकारी के साथ मिलके काली कामायी करी थी उसे भी अपने व्यवसाय में साझेदार बनाया। शुरू में तो सब ठीक थे लेकिन कुछ ही साल में उसे लगने लगा की उसकी कंपनी घाटे में चल रही है लेकिन जब तक वो समझ पाता कंपनी के अधिकतर शेयर का मालिक उसका साझेदार हो चुका था और उसने अंकित को
जालसाजी करके कंपनी से बाहर कर दिया ।

अंकित की पूरी कमाई उसके इसी व्यवसाय में लगी थी और अब वो सड़क पर आ चुका था ।  पिता से अपना व्यवसाय खोलते ही वो अलग हो चुका था इसलिए उनके पास किस मुंह से जाता

उसके अन्दर ये भाव आ गया था की उसने जिस तरह से धोखे से पैसे बनाये थे वे वैसे ही चले गए । उसे ये लगने लगा था की उसके पिता ने भी अगर उसे अच्छे संस्कार दी होते तो वो कम से कम ऐसे हाल पर न होता

कुछ महीने गुज़र गए और अंकित फिर से किसी नौकरी करने की सोच के निकला लेकिन उसके किए हुए घोटालों का सच सामने आ चुका था अतः कहीं  भी उसे काम न मिलता ।
इसी तरह कई जगह से नाउम्मीद होके वो एक और कंपनी में साक्षातकार हेतु गया ।
वहां अपनी बारी आने पर जिस शख्स को उसने सामने देखा वो महेंद्र था । महेंद्र अब तक अच्छा काम करते हुए उस कंपनी के निदेशक पद पर पहुँच चुका था ।
महेंद्र को देखके वो बिना कुछ बोले शर्मिंदगी से वापस लौटने लगा की तभी महेंद्र ने उसे रोका ।

महेंद्र सब समझ चुका था और उसने कुछ भी देर में उसे उसी कंपनी में उसके पदानुरूप पद देकर नौकरी पर रख लिया ।


कहानी कुछ प्रश्न सामने रखती है :


१. क्या बच्चों के संस्कार का उन पर पूरी उम्र असर रहता है ?


२. क्या महेंद्र के खिलाफ अंकित का प्रतिशोध की भावना रखना ठीक था ?


३. क्या अंकित अब दुबारा धोखा नहीं करेगा ?


४. क्या अंकित के ह्रदय में प्रयाश्चित की भावना उपजेगी ?


५. क्या महेंद्र ने अंकित को दुबारा मौका देके ग़लत किया ?


६. क्या अंकित ने जो ग़लत किया वो भानु द्वारा दी गए संस्कार थे ?


७. क्या ये सत्य  है की सत्य परेशान हो सकता है हार नहीं सकता ?


८. क्या हम सबके अन्दर ये दो चरित्र अंकित और महेंद्र या सुमित और भानु हमेशा रहते हैं ?


९.क्या बुराई को अच्छाई से ही दूर किया जा सकता है ?

Saturday, 5 November 2011

अच्छा ठीक है


'अच्छा ठीक है" ये शब्द शायद सुमित के तकियाकलाम से थे
विद्यालय में भी जब उसके कक्षा के बच्चों को कोई विषय न मिलता तो वो आपस में इन्ही शब्दों को बोलके हंसी ठिठोली करते
कई बार तो उसका कालर खींचते,कई बार उसे धक्का दे देते और कई बार मास्टरजी से झूठी शिकायत  करके  मार खिलाते
सांतवी  कक्षा का सुमित हंस के सुन लेता था, सह लेता था बल्कि उसे अपने साथियों को आनंदित देख अच्छा लगता था
लेकिन बात सिर्फ इतनी नहीं थी सुमित एक बहुत गरीब घर से आता था और उनके कसबे में सिर्फ येही एक प्राथमिक विद्यालय था अतः
सभी  बच्चे आते थे और धनाड्य  परिवार के ज्यादा थे
सुमित के मनमे पढने की रूचि बहुत थी और उस रास्ते में ये हंसी ठिठोली उसे बुरी  नहीं लगती थी भले वो हमेशा उस ही लेके कर ही हो
और अब तो सुमित को अपने स्कूल में तीन साल हो रहे थे

स्वभाव से ही शांत व प्रसन्नचित सुमित न विद्यालय में और न ही घर में विद्यालय के काम से निजात पा  पाता  कारण की उसके सहपाठियों के
गृहकार्य का भी ज़िम्मा उसी का होता था ऐसा शिक्षक ने नहीं उसके सहपाठियों ने ही अपने रौबवश किया था

ये शायद उसके शांत रहने का जुरमाना था या एक गरीब होके भी अमीरों के साथ एक स्कूल में पढने का दंड

बहरहाल सुमित इन सब बातों से अनभिज्ञ था या शायद रहना ही चाहता था उसे अपने पिता की मार व ज़बरदस्ती मजदूरी करने जाने
से स्कूल में सबसे दबकर रहना उचित प्रतीत होता था

सुमित पढ़ाई में तेज़ था  जब उसके कक्षा अध्यापक कहते की तू 
बड़ा  आदमी बनेगा  तो ये शब्द उसे ऐसे लगते जैसे  उसे हर ख़ुशी मिल गयी


लेकिन ये ख़ुशी चंद दिनों की थी और सुमित का अंदेशा की कहीं उसकी पढ़ाई छूट न जाए सही निकला
बात वार्षिक परीक्षा के दिन की है सभी विद्यार्थी अपना परीक्षापत्र  हल  कर रहे थे लेकिन जिन्होंने साल भर मस्ती की उन्हें तो बस नक़ल का सहारा था
सबको मालूम था एक अन्य सहपाठी भानू नक़ल ले के आया है और सब मास्टरजी से नज़र बचा बचा कर

किताब ले रहे थे और मेज़ में छुपा कर लिख रहे थे । सुमित चूँकि बीच की पंक्ति में बैठा था या सहपाठियों द्वारा  बैठाया गया था तो उसे न चाह कर भी नक़ल की किताब एक ओर से दूसरी ओर देनी पड़ रही थी। लेकिन ऐसा कब तक चलता आखिर कक्ष-निरीक्षक की नज़र किताब पर पड़ गयी और भानू का नाम सामने आने लगा 
लेकिन भानू ने बड़े आत्मविश्वास से दोष सुमित पर मढ़ दिया सारी कक्षा अवाक थी,सबकी निगाहें सुमित की तरफ थीं और सुमित ने अपना सर झुकाकर इस कुकृत्य की स्वीकृति दे दी
उसकी परीक्षा रद्द कर दी गयी और कुछ दिनों के बाद सड़क हादसे में पिता की मृत्यु हो गयी
सुमित की प्राथमिकताएं बदल चुकी थी अब उसे पढना नहीं अपनी माँ और छोटे भाई और बहन का भरण पोषण करना था
। उसे जो भी काम मिलता कर देता,उसकी आखों से पढ़ाई बहुत दूर हो चुकी थी,ना ही उसमे पढने की इच्छा थी क्यूंकि उसे लगता था पढ़ाई लिखी तो सभ्रांत होने के लिए की जाती और इसके लिए पढने से ज्यादा सीखने और मनन की आवशयकता होती,वैसे सुमित के दिल में अपने सहपाठियों द्वारा किया हुआ कुकृत्य याद आता रहता था,उसका दिल फिर भी उन्हें दोषी नहीं ठहरता उसे दुःख इस बात का था की उसी साल से छात्रवृत्ति की शुरुआत होनी थी और इसके लिए उसने जी-तोड़ मेहनत की थी
बहरहाल वक़्त रुकता नहीं और पंद्रह साल बीत गए



भानू अमेरिका से  ऊँची पढाई कर लौटा था और अपने पिता के भूमि-गृह निर्माण व्यवसाय में हाथ बटाने लगा । वो खुद भी एक बहुत बड़ा मल्टी- काम्प्लेक्स बनवा रहा था 
एक दिन वो अपनी वर्क-साईट पर आया जहाँ उसने देखा की ठेकेदार सभी मजदूरों को पैसे दे रहा था
। एक आदमी को पैसे देते वक़्त वो थोडा चिल्लाने  लगा भानू पास गया तो माजरा समझा । उस आदमी को ठेकेदार ने पांच  दिन के पैसे बकाये किए थे और आज देते समय ठेकेदार चार दिन की ही दिहाड़ी बाकी है ऐसा कहके चार दिन के ही पैसे दे रहा था और वो आदमी जो अपनी बेतरतीब से उगी दाढ़ी के
कारण अपनी उम्र से अधिक लग रहा था ठेकेदार को याद दिला रहा था। भानू को अपने मलिकपने का एहसास हो आया और वो ठेकेदार का पक्ष लेते हुए बोलने लगा ''इस तरह से कोई भी ज्यादा दिन कहेगा तो क्या सच मान लिया जाएगा,देखो ये ठेकेदार ग़लत क्यूँ बोलेगा, ए तुम चार दिन का पैसा ले सकते हो तो बताओ । तुम्हारे हिसाब से सब चलने लगा तब तो ये प्रोजेक्ट बन चुका सारा पैसा तुम्ही लोगों
में खर्च हो जायेगा
। अरे ज्यादा कमाना था तो ज्यादा पढना चाहिए नहीं तो ज्यादा काम करो । हाँ  तो  बताओ तुम्हे चार दिन के पैसे चाहिए की नहीं ।"
उस मजदूर ने सिर्फ इतना कहा ''अच्छा ठीक है'' । ये कहके वो ठेकेदार से पैसे लेके अपनी झोपडी की तरफ चल पड़ा

 



कुछ प्रश्न जो बरबस ही इस कहानी से निकलते हैं :


१. क्या समाज में सामान शिक्षा मात्र शैक्षिक पाठ्य-क्रम सामान कर देने से हो जाएगी ?

२. क्या बच्चों को बचपने से ही अमीरी गरीबी का पाठ हम अनजाने में पढ़ा जाते हैं ?


३. क्या सुमित का नक़ल न करने के बावजूद नक़ल स्वीकार करना ग़लत था ?

४. क्या पढ़ाई के आधार बिंदु सभ्रान्तता,सहिष्णुता,धैर्य,संतोष हैं या मान,दंभ,चतुराई,घमंड व वस्तुवादिता ?

५. क्या कई बार अमीर अथवा विरासत से हुए अमीर भानू की तरह जीने वाले जीवन भर जीवन तत्त्व  नहीं जान पाते ? क्या वे नहीं जान पाते जीवन तत्त्व मात्र स्वार्थ,चतुराई,क्रोध,दंभ में नहीं शान्ति,निस्वार्थता,त्याग व मानवता में निहित है ?


६. क्या सत्य अथवा अच्छाई को किसी प्रमाण अथार्त डिग्री की अपेक्षा या आवश्यकता होती है ?या ये स्वयं में प्रमाण है ?

७. क्या सत्य अथवा अच्छाई किसी फल की इच्छा के लिए किए जाते हैं या ये स्वयं ही फल हैं ? 
 

Saturday, 29 October 2011

वैराग्य

मुंशी शालिग्राम बनारस के पुराने रईस थे। जीवन-वृति वकालत थी और पैतृक सम्पत्ति भी अधिक थी। दशाश्वमेध घाट पर उनका वैभवान्वित गृह आकाश को स्पर्श करता था। उदार ऐसे कि पचीस-तीस हजार की वाषिर्क आय भी व्यय को पूरी न होती थी। साधु-ब्राहमणों के बड़े श्रद्वावान थे। वे जो कुछ कमाते, वह स्वयं ब्रह्रमभोज और साधुओं के भंडारे एवं सत्यकार्य में व्यय हो जाता। नगर में कोई साधु-महात्मा आ जाये, वह मुंशी जी का अतिथि। संस्कृत के ऐसे विद्वान कि बड़े-बड़े पंडित उनका लोहा मानते थे वेदान्तीय सिद्वान्तों के वे अनुयायी थे। उनके चित्त की प्रवृति वैराग्य की ओर थी।
     मुंशीजी को स्वभावत: बच्चों से बहुत प्रेम था। मुहल्ले-भर के बच्चे उनके प्रेम-वारि से अभिसिंचित होते रहते थे। जब वे घर से निकलते थे तब बालाकों का एक दल उसके साथ होता था। एक दिन कोई पाषाण-हृदय माता अपने बच्वे को मार थी। लड़का बिलख-बिलखकर रो रहा था। मुंशी जी से न रहा गया। दौड़े, बच्चे को गोद में उठा लिया और स्त्री के सम्मुख अपना सिर    झुक दिया। स्त्री ने उस दिन से अपने लड़के को न मारने की शपथ खा ली जो मनुष्य दूसरो के बालकों का ऐसा स्नेही हो, वह अपने बालक को कितना प्यार करेगा, सो अनुमान से बाहर है। जब से पुत्र पैदा हुआ, मुंशी जी संसार के सब कार्यो से अलग हो गये। कहीं वे लड़के को हिंडोल में झुला रहे हैं और प्रसन्न हो रहे हैं। कहीं वे उसे एक सुन्दर सैरगाड़ी में बैठाकर स्वयं खींच रहे हैं। एक क्षण के लिए भी उसे अपने पास से दूर नहीं करते थे। वे बच्चे के स्नेह में अपने को भूल गये थे।
     सुवामा ने लड़के का नाम प्रतापचन्द्र रखा था। जैसा नाम था वैसे ही उसमें गुण भी थे। वह अत्यन्त प्रतिभाशाली और रुपवान था। जब वह बातें करता, सुनने वाले मुग्ध हो जाते। भव्य ललाट दमक-दमक करता था। अंग ऐसे पुष्ट कि द्विगुण डीलवाले लड़कों को भी वह कुछ न समझता था। इस अल्प आयु ही में उसका मुख-मण्डल ऐसा दिव्य और ज्ञानमय था कि यदि वह अचानक किसी अपरिचित मनुष्य के सामने आकर खड़ा हो जाता तो वह विस्मय से ताकने लगता था।
     इस प्रकार हंसते-खेलते छ: वर्ष व्यतीत हो गये। आनंद के दिन पवन की भांति सन्न-से निकल जाते हैं और पता भी नहीं चलता। वे दुर्भाग्य के दिन और विपत्ति की रातें हैं, जो काटे नहीं कटतीं। प्रताप को पैदा हुए अभी कितने दिन हुए। बधाई की मनोहारिणी ध्वनि कानों मे गूंज रही थी छठी वर्षगांठ आ पहुंची। छठे वर्ष का अंत दुर्दिनों का श्रीगणेश था। मुंशी शालिग्राम का सांसारिक सम्बन्ध केवल दिखावटी था। वह निष्काम और निस्सम्बद्व जीवन व्यतीत करते थे। यद्यपि प्रकट वह सामान्य संसारी मनुष्यों की भांति संसार के क्लेशों से क्लेशित और सुखों से हर्षित दृष्टिगोचर होते थे, तथापि उनका मन सर्वथा उस महान और आनन्दपूर्व शांति का सुख-भोग करता था, जिस पर दु:ख के झोंकों और सुख की थपकियों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
     माघ का महीना था। प्रयाग में कुम्भ का मेला लगा हुआ था। रेलगाड़ियों में यात्री रुई की भांति भर-भरकर प्रयाग पहुंचाये जाते थे। अस्सी-अस्सी बरस के वृद्व-जिनके लिए वर्षो से उठना कठिन हो रहा था- लंगड़ाते, लाठियां टेकते मंजिल तै करके प्रयागराज को जा रहे थे। बड़े-बड़े साधु-महात्मा, जिनके दर्शनो की इच्छा लोगों को हिमालय की अंधेरी गुफाओं में खींच ले जाती थी, उस समय गंगाजी की पवित्र तरंगों से गले मिलने के लिए आये हुए थे। मुंशी शालिग्राम का भी मन ललचाया। सुवाम से बोले- कल स्नान है।
     सुवामा - सारा मुहल्ला सूना हो गया। कोई मनुष्य नहीं दीखता।
     मुंशी - तुम चलना स्वीकार नहीं करती, नहीं तो बड़ा आनंद होता। ऐसा मेला तुमने कभी नहीं देखा होगा।
     सुवामा - ऐसे मेला से मेरा जी घबराता है।
     मुंशी - मेरा जी तो नहीं मानता। जब से सुना कि स्वामी परमानन्द जी आये हैं तब से उनके दर्शन के लिए चित्त उद्विग्न हो रहा है।
    
सुवामा पहले तो उनके जाने पर सहमत न हुई, पर जब देखा कि यह रोके न रुकेंगे, तब विवश होकर मान गयी। उसी दिन मुंशी जी ग्यारह बजे रात को प्रयागराज चले गये। चलते समय उन्होंने प्रताप के मुख का चुम्बन किया और स्त्री को प्रेम से गले लगा लिया। सुवामा ने उस समय देखा कि उनके नेञ सजल हैं। उसका कलेजा धक से हो गया। जैसे चैत्र मास में काली घटाओं को देखकर कृषक का हृदय कॉंपने लगता है, उसी भाती मुंशीजी ने नेत्रों का अश्रुपूर्ण देखकर सुवामा कम्पित हुई। अश्रु की वे बूंदें वैराग्य और
त्याग का अगाघ समुद्र थीं। देखने में वे जैसे नन्हे जल के कण थीं, पर थीं वे कितनी गंभीर और विस्तीर्ण।
     उधर मुंशी जी घर के बाहर निकले और इधर सुवामा ने एक ठंडी श्वास ली। किसी ने उसके हृदय में यह कहा कि अब तुझे अपने पति के दर्शन न होंगे। एक दिन बीता, दो दिन बीते, चौथा दिन आया और रात हो गयी, यहा तक कि पूरा सप्ताह बीत गया, पर मुंशी जी न आये। तब तो सुवामा को आकुलता होने लगी। तार दिये, आदमी दौड़ाये, पर कुछ पता न चला। दूसरा सप्ताह भी इसी प्रयत्न में समाप्त हो गया। मुंशी जी के लौटने की जो कुछ आशा शेष थी, वह सब मिट्टी में मिल गयी। मुंशी जी का अदृश्य होना उनके कुटुम्ब मात्र के लिए ही नहीं, वरन सारे नगर के लिए एक शोकपूर्ण घटना थी। हाटों में दुकानों पर, हथाइयो में अर्थात चारों और यही वार्तालाप होता था। जो सुनता, वही शोक करता- क्या धनी, क्या निर्धन।जिन गलियों से वे बालकों का झुण्ड लेकर निकलते थे, वहां अब धूल उड़ रही थी। बच्चे बराबर उनके पास आने के लिए रोते और हठ करते थे। उन बेचारों को यह सुध कहां थी कि अब प्रमोद सभा भंग हो गयी है। उनकी माताएं ऑंचल से मुख ढांप-ढांपकर रोतीं मानों उनका सगा प्रेमी मर गया है।
     वैसे तो मुंशी जी के गुप्त हो जाने का रोना सभी रोते थे। परन्तु सब से गाढ़े आंसू, उन आढतियों और महाजनों के नेत्रों से गिरते थे, जिनके लेने-देने का लेखा अभी नहीं हुआ था। उन्होंने दस-बारह दिन जैसे-जैसे करके काटे, पश्चात एक-एक करके लेखा के पत्र दिखाने लगे। किसी ब्रहृनभोज मे सौ रुपये का घी आया है और मूल्य नहीं दिया गया। कही से दो-सौ का मैदा आया हुआ है। बजाज का सहस्रों का लेखा है। मन्दिर बनवाते समय एक महाजन के बीस सहस्र ऋण लिया था, वह अभी वैसे ही पड़ा हुआ है लेखा की तो यह दशा थी। सामग्री की यह दशा कि एक उत्तम गृह और तत्सम्बन्धिनी सामग्रियों के अतिरिक्त कोई वस्त न थी, जिससे कोई बड़ी रकम खड़ी हो सके। भू-सम्पत्ति बेचने के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय न था, जिससे धन प्राप्त करके ऋण चुकाया जाए।
बेचारी सुवामा सिर नीचा किए हुए चटाई पर बैठी थी और प्रतापचन्द्र अपने लकड़ी के घोड़े पर सवार आंगन में टख-टख कर रहा था कि पण्डित मोटेराम शास्त्री - जो कुल के पुरोहित थे - मुस्कराते हुए भीतर आये। उन्हें प्रसन्न देखकर निराश सुवामा चौंककर उठ बैठी कि शायद यह कोई शुभ समाचार लाये हैं। उनके लिए आसन बिछा दिया और आशा-भरी दृष्टि से देखने लगी। पण्डितजी आसान पर बैठे और सुंघनी सूंघते हुए बोले तुमने महाजनों का लेखा देखा?
     सुवामा ने निराशापूर्ण शब्दों में कहा-हां, देखा तो।
     मोटेराम-रकम बड़ी गहरी है। मुंशीजी ने आगा-पीछा कुछ न सोचा, अपने यहां कुछ हिसाब-किताब न रखा।
     सुवामा-हां अब तो यह रकम गहरी है, नहीं तो इतने रुपये क्या, एक-एक भोज में उठ गये हैं।
     मोटेराम-सब दिन समान नहीं बीतते।
सुवामा-अब तो जो ईश्वर करेगा सो होगा, क्या कर सकती हूं।
     मोटेराम- हां ईश्वर की इच्छा तो मूल ही है, मगर तुमने भी कुछ सोचा है ?
     सुवामा-हां गांव बेच डालूंगी।
     मोटेराम-राम-राम। यह क्या कहती हो ? भूमि बिक गयी, तो फिर बात क्या रह जायेगी?
     मोटेराम- भला, पृथ्वी हाथ से निकल गयी, तो तुम लोगों का जीवन निर्वाह कैसे होगा?
     सुवामा-हमारा ईश्वर मालिक है। वही बेड़ा पार करेगा।
     मोटेराम यह तो बड़े अफसोस की बात होगी कि ऐसे उपकारी पुरुष के लड़के-बाले दु:ख भोगें।
     सुवामा-ईश्वर की यही इच्छा है, तो किसी का क्या बस?
     मोटेराम-भला, मैं एक युक्ति बता दूं कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।
     सुवामा- हां, बतलाइए बड़ा उपकार होगा।
     मोटेराम-पहले तो एक दरख्वास्त लिखवाकर कलक्टर साहिब को दे दो
कि मालगुलारी माफ की जाये। बाकी रुपये का बन्दोबस्त हमारे ऊपर छोड दो। हम जो चाहेंगे करेंगे, परन्तु इलाके पर आंच ना आने पायेगी।
     सुवामा-कुछ प्रकट भी तो हो, आप इतने रुपये कहां से लायेंगी?
          मोटेराम- तुम्हारे लिए रुपये की क्या कमी है? मुंशी जी के नाम पर बिना लिखा-पढ़ी के पचास हजार रुपये का बन्दोस्त हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है। सच तो यह है कि रुपया रखा हुआ है, तुम्हारे मुंह से ‘हां’ निकलने की देरी है।
     सुवामा- नगर के भद्र-पुरुषों ने एकत्र किया होगा?
     मोटेराम- हां, बात-की-बात में रुपया एकत्र हो गया। साहब का इशारा बहुत था।
     सुवामा-कर-मुक्ति के लिए प्रार्थना-पञ मुझसे न लिखवाया जाएगा और मैं अपने स्वामी के नाम ऋण ही लेना चाहती हूं। मैं सबका एक-एक पैसा अपने गांवों ही से चुका दूंगी।
     यह कहकर सुवामा ने रुखाई से मुंह फेर लिया और उसके पीले तथा शोकान्वित बदन पर क्रोध-सा झलकने लगा। मोटेराम ने देखा कि बात बिगड़ना चाहती है, तो संभलकर बोले- अच्छा, जैसे तुम्हारी इच्छा। इसमें कोई जबरदस्ती नहीं है। मगर यदि हमने तुमको किसी प्रकार का दु:ख उठाते देखा, तो उस दिन प्रलय हो जायेगा। बस, इतना समझ लो।
     सुवामा-तो आप क्या यह चाहते हैं कि मैं अपने पति के नाम पर दूसरों की कृतज्ञता का भार रखूं? मैं इसी घर में जल मरुंगी, अनशन करते-करते मर जाऊंगी, पर किसी की उपकृत न बनूंगी।
     मोटेराम-छि:छि:। तुम्हारे ऊपर निहोरा कौन कर सकता है? कैसी बात मुख से निकालती है? ऋण लेने में कोई लाज नहीं है। कौन रईस है जिस पर लाख दो-लाख का ऋण न हो?
     सुवामा- मुझे विश्वास नहीं होता कि इस ऋण में निहोरा है।
     मोटेराम- सुवामा, तुम्हारी बुद्वि कहां गयी? भला, सब प्रकार के दु:ख उठा लोगी पर क्या तुम्हें इस बालक पर दया नहीं आती?
     मोटेराम की यह चोट बहुत कड़ी लगी। सुवामा सजलनयना हो गई। उसने पुत्र की ओर करुणा-भरी दृष्टि से देखा। इस बच्चे के लिए मैंने कौन-कौन सी तपस्या नहीं की? क्या उसके भाग्य में दु:ख ही बदा है। जो अमोला जलवायु के प्रखर झोंकों से बचाता जाता था, जिस पर सूर्य की प्रचण्ड किरणें न पड़ने पाती थीं, जो स्नेह-सुधा से अभी सिंचित रहता था, क्या वह आज इस जलती हुई धूप और इस आग की लपट में मुरझायेगा? सुवामा कई मिनट तक इसी चिन्ता में बैठी रही। मोटेराम मन-ही-मन प्रसन्न हो रहे थे कि अब सफलीभूत हुआ। इतने में सुवामा ने सिर उठाकर कहा-जिसके पिता ने लाखों को जिलाया-खिलाया, वह दूसरों का आश्रित नहीं बन सकता। यदि पिता का धर्म उसका सहायक होगा, तो स्वयं दस को खिलाकर खायेगा। लड़के को बुलाते हुए ‘बेटा। तनिक यहां आओ। कल से तुम्हारी मिठाई, दूध, घी सब बन्द हो जायेंगे। रोओगे तो नहीं?’ यह कहकर उसने बेटे को प्यार से बैठा लिया और उसके गुलाबी गालों का पसीना पोंछकर चुम्बन कर लिया।
     प्रताप- क्या कहा? कल से मिठाई बन्द होगी? क्यों क्या हलवाई की दुकान पर मिठाई नहीं है?
     सुवामा-मिठाई तो है, पर उसका रुपया कौन देगा?
     प्रताप- हम बड़े होंगे, तो उसको बहुत-सा रुपया देंगे। चल, टख। टख। देख मां, कैसा तेज घोड़ा है।
     सुवामा की आंखों में फिर जल भर आया। ‘हा हन्त। इस सौन्दर्य और सुकुमारता की मूर्ति पर अभी से दरिद्रता की आपत्तियां आ जायेंगी। नहीं नहीं, मैं स्वयं सब भोग लूंगी। परन्तु अपने प्राण-प्यारे बच्चे के ऊपर आपत्ति की परछाहीं तक न आने दूंगी।’ माता तो यह सोच रही थी और प्रताप अपने हठी और मुंहजोर घोड़े पर चढ़ने में पूर्ण शक्ति से लीन हो रहा था। बच्चे मन के राजा होते हैं।
अभिप्राय यह कि मोटेराम ने बहुत जाल फैलाया। विविध प्रकार का वाक्चातुर्य दिखलाया, परन्तु सुवामा ने एक बार ‘नहीं करके ‘हां’ न की। उसकी इस आत्मरक्षा का समाचार जिसने सुना, धन्य-धन्य कहा। लोगों के मन में उसकी प्रतिष्टा दूनी हो गयी। उसने वही किया, जो ऐसे संतोषपूर्ण और उदार-हृदय मनुष्य की स्त्री को करना उचित था।
     इसके पन्द्रहवें दिन इलाका नीलामा पर चढ़ा। पचास सहस्र रुपये प्राप्त हुए कुल ऋण चुका दिया गया। घर का अनावश्यक सामान बेच दिया गया। मकान में भी सुवामा ने भीतर से ऊंची-ऊंची दीवारें खिंचवा कर दो अलग-अलग खण्ड कर दिये। एक में आप रहने लगी और दूसरा भाड़े पर उठा दिया।

Tuesday, 8 March 2011

World

World is just a part of the universe but has its own importance.
Everyone resides in the world and World is itself residence
World is a grace of the God and his blessings
World is a relation with the God and his sayings
World seems to be seen the way we want to see.
World and the nature value us whether we value.